जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो

मैंने सुना है, एक दिन एक आदमी ने अपने मकान को पोतने के लिए एक आदमी को ठेका दिया है। दो रुपया घंटे से वह मकान पोतने का ठेका देकर गया है। जब सांझ को वापस लौटा, तो देखा कि वह आदमी झाड़ के नीचे आराम से लेटा हुआ है। उसने पूछा कि क्या कर रहे हो? मकान की पोताई नहीं कर रहे? उसने कहा कि कर रहा है; देखो! मकान की तरफ देखा, एक दूसरा आदमी पोताई कर रहा है! उस मकान के मालिक ने पूछा कि मैं समझा नहीं! तो उसने कहा कि मैंने दो रुपया घंटे के हिसाब से इस आदमी को काम करने के लिए रखा है। उस मकान मालिक ने पूछा, बड़े पागल हो! इससे तुम्हें फायदा क्या होगा? क्योंकि दो रुपए घंटे पर मैंने तुम्हें रखा है। दो रुपए घंटे पर तुमने इसे रखा है। फायदा क्या है? उसने कहा कि कभी-कभी मालिक होने का मजा हम भी लेना चाहते हैं! हम जरा वृक्ष के नीचे लेटे हैं। इट इज़ वर्थ टु बी दि बास फार सम टाइम। कभी थोड़ा बास हो जाने में थोड़ा मजा आता है। आज दिनभर से लेटे हैं और आज्ञा दे रहे हैं कि यह कर, ऐसा कर। फायदा तो कुछ भी नहीं, उसने कहा। दिनभर गंवाया, लेकिन जरा मालिक होने का मजा!
जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो कि पाएं कि जिंदगी गंवायी, थोड़ा मालिक होने का मजा लिया।
यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है। लेकिन इससे कम मूढ़ आदमी खोजना मुश्किल है। यह आदमी मूढ़ मालूम पड़ता है; आप हंसते हैं इस पर। लेकिन जिंदगी के आखिर में अपना हिसाब करीब-करीब ऐसा पाएंगे कि थोड़ा बास होने का मजा लिया! हाथ में कुछ होगा नहीं। हाथ में तो केवल उनके कुछ होता है, जो अपने मालिक।
तो कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति जो तत्व को जान लेता, इंद्रियां अपना काम करती हैं, ऐसा जान लेता, और ऐसा जानते ही दूर खड़ा हो जाता है इंद्रियों के सारे धुएं के बाहर। इंद्रियों की बदलियों के बाहर सूरज के साथ एक हो जाता है।
वह जो सूरज के साथ एक हुआ है, वह मालिक है। उसकी कोई गुलामी नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है। ऐसे व्यक्ति के आनंद की कोई सीमा नहीं है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति का कोई अंत नहीं है। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन हम गंवा रहे हैं; तब तक हम जीवन से कुछ कमा नहीं रहे हैं। चाहे हम कितना ही कमाते हुए मालूम पड़ रहे हों, हम सिर्फ गंवा रहे हैं। यहां ढेर लग जाएगा धन का, और वहां जिंदगी चुक जाएगी। यहां सामान इकट्ठा हो जाएगा, और आदमी खो जाएगा। और यहां संसार की विजय-यात्रा पूरी हो जाएगी, और भीतर हम पाएंगे कि हम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हैं।
इंद्रियों पर थोड़ी जागरूकता लानी जरूरी है। इसलिए कृष्ण के ये वचन सिर्फ व्याख्या से समझ में आ जाएंगे, इस भूल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। ये सारे सूत्र साधना के सूत्र हैं।
लेकिन मजा है, हमारे मुल्क में लोग गीता का पाठ कर रहे हैं! सोचते हैं, पाठ से कुछ हो जाएगा। पाठ तोते भी कर लेते हैं। और पाठ करने वाले अक्सर धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। सब कंठस्थ हो जाता है। दोहराना आ जाता है। यंत्रवत गीता बोलने लगते हैं। सब अर्थ उन्हें पता हैं। सब शब्द उन्हें पता हैं। गीता पूरी कंठस्थ है। करने को कुछ बचता नहीं। कृष्ण अपना सिर ठोकते होंगे।
गीता के सूत्र साधना के सूत्र हैं। समझ लिया कि ठीक बात है, इंद्रियां अपना काम करती हैं। लेकिन कल सुबह फिर कहा कि मुझे भूख लगी है, तो गलती है। फिर समझे नहीं। फिर भीतर से थोड़ा सोचना चाहिए, मुझे भूख लगती है?
इंद्रियों के प्रत्येक कृत्य में खोजकर देखें, कर्ता आप नहीं हैं। इंद्रियों का समस्त कर्म प्रकृति से हो रहा है। आपकी कोई भी जरूरत नहीं है। कभी आप खयाल करते हैं! खाना तो आप मुंह में डाल लेते हैं; पचाते आप हैं? कौन पचाता है? खाना आप खाते हैं; पचाता कौन है? कभी पता चलता है, कौन पचा रहा है? इंद्रिय पचा रही है। पता ही नहीं चलता, कौन पचा रहा है! कौन इस रोटी को खून बना रहा है! मिरेकल घट रहा है पेट के भीतर।
अभी वैज्ञानिक फिलहाल समर्थ नहीं हैं। कहते हैं कि शायद अभी और काफी समय लगेगा, तब हम रोटी से सीधा खून बना सकेंगे। आपका पेट कर ही रहा है वह काम बिना किसी बड़े आइंस्टीन की बुद्धि के। इंद्रिय कुछ आइंस्टीन से कम बुद्धिमान मालूम नहीं पड़ती! प्रकृति कुछ कम रहस्यपूर्ण नहीं मालूम पड़ती।

वैज्ञानिक कहते हैं, और अगर हम किसी दिन रोटी से खून बनाने में समर्थ भी हो गए, तो एक आदमी का पेट जो काम करता है, उतना काम करने के लिए कम से कम एक वर्ग मील जमीन पर फैक्टरी बनानी पड़ेगी! एक पेट में जो काम चलता है, एक वर्ग मील का भारी कारखाना होगा, तब कहीं हम रोटी को खून तक ले जा सकते हैं। वह भी अभी सूत्र साफ नहीं हो सके। लेकिन आप रोज कर रहे हैं। कौन कर रहा है? आप कर रहे हैं? आप तो सो जाते हैं रात, तब भी होता रहता है। आप शराब पीकर नाली में पड़े रहते हैं, तब भी होता रहता है।
मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश थी, कोमा में पड़ी है। और डाक्टर कहते हैं, अब कभी होश में नहीं आएगी। चार साल तक बेहोश रह सकती है और बेहोशी में ही मर जाएगी। लेकिन बराबर ग्लूकोज दिया जा रहा है, दूध पिलाया जा रहा है, पेट पचा रहा है; वह नौ महीने से बेहोश है। शरीर खून बना रहा है। सांस चल रही है। कौन ले रहा है? यह काम कौन कर रहा है? आप? तो वह औरत तो बेहोश पड़ी है; वह तो है ही नहीं अब एक अर्थ में। प्रकृति किए चली जा रही है!
इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे भीतर फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे द्वारा बाहर के आकाश और जगत तक फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति का यंत्र हैं, वे अपना काम कर रही हैं, भूलकर उनसे अपने को न जोड़ें। जो इंद्रियों से अपने को जोड़ता है, वह अज्ञानी है। जो इंद्रियों से अपने को अलग देख लेता है, वह ज्ञानी है।

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