सुनिए जी, अगले महीने करवा चौथ है। आपको याद है ना।",सुनीता ने अपने पति स्वतंत्र से बड़े प्रेम भरे शब्दों में कहा। "पिछली बार आपने वादा किया था कि अगली करवा चौथ पर मुझे साड़ी जरूर दिलवाएंगे। अभी से कह रही हूँ, कोई बहाना नहीं सुनूंगी। पिछली बार तो आपने बस चूड़ियों में ही टाल दिया था।"
"हाँ हाँ यार, याद है। ले लेना साड़ी, और कुछ।" स्वतंत्र ने मुस्कुराते हुए कहा। "अब ऑफिस जाऊं, देर हो रही है।"
धीरे धीरे दिन बीतते गए और करवा चौथ में कुछ ही दिन बचे। एक दिन ऑफिस में कार्य करते हुए स्वतंत्र के सहकर्मी ने उससे कहा," यार स्वतंत्र कल मैं छुट्टी पर रहूँगा। जरा मेरा काम भी देख लेना।"
"ठीक है, तुम चिंता मत करो। मैं संभाल लूंगा। कहीं जा रहे हो?" स्वतंत्र ने पूछा।
"नहीं भाई, एक हफ्ते बाद करवा चौथ है। तुम्हारी भाभी को साड़ी और कुछ सामान दिलवाना है। तो बस बाजार ही जाना है। औरतों का तो तुम्हे पता ही है, पूरा दिन लगा देती हैं खरीददारी में।"
यह सुनकर स्वतंत्र को सुनीता की बात याद आ गयी। वो मन में सोचने लगा कि उसने भी सुनीता को साड़ी दिलवाने का वादा किया है। पर पैसे तो हैं नहीं, क्या करूँ। अभी वेतन आने में भी काफी दिन हैं। ये त्यौहार महीने के आखिर में ही क्यों आते हैं जब जेब बिलकुल खाली होती है।
शाम को स्वतंत्र ऑफिस से घर पहुंचा। प्रतिदिन की तरह सुनीता ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला। पर उसकी आँखों में स्वतंत्र को कुछ प्रश्न दिखाई दे रहे थे, जैसे वो उसे उसका वादा याद दिला रही हो। स्वतंत्र हल्का सा मुस्कुरा कर अंदर बढ़ गया।
खाना खा कर सीधे सोने चला गया। वह सुनीता के सामने आने से बचना चाह रहा था। किन्तु एक घर में रहकर यह संभव कहाँ ? आखिर उसे पकड़ ही लिया।
"क्या बात है ? बहुत देर से देख रही हूँ, नज़र बचा बचा के निकल रहे हो।"
"नहीं तो, ऐसी कोई बात नहीं है। बस काम की थोड़ी थकान है, और कोई बात नहीं है ।"
"अच्छा, तो ये बताओ अपना वादा याद है या भूल गए गए।"
"कौन सा वादा ?", "साड़ी दिलाने का",सुनीता ने थोड़ा नाराज़ होते हुए कहा।“ "अच्छा साड़ी, ले लेना। अभी तो कई दिन बाकी है।" ने स्वतंत्र आहिस्ता से कहा।
"अच्छा दो दिन पहले दिलाओगे तो कैसे पहनूंगी। साड़ी पहनने के लिए तैयार भी तो करवानी पड़ती है। आजकल तो बुटीक पर कितनी भीड़ होती है। दस दस दिन में नंबर आता है। आज पैसे दो तो कल ले आउंगी।" सुनीता तुनक कर बोली।
"कितने तक की आएगी ?"
"अच्छी साड़ी कम से कम पांच हजार तक की तो होगी ही।"
पांच हजार सुनकर स्वतंत्र की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे अटक गयी।
“अभी तो पैसे नहीं हैं, एक दो दिन में इंतजाम करता हूँ।” स्वतंत्र ने सुनीता को देखते हुए कहा। सुनीता झुंझलाते हुए बोली, “आपका हर बार का यही रहता है, जब मैं इतने दिन पहले से कह देती हूँ तो इंतजाम क्यों नहीं कर के रखते।“ इतना कहकर सुनीता पैर पटकते हुए चली गयी और स्वतंत्र वहीं खड़ा सोचता रह गया। गलत भी क्या कह गयी, हर त्यौहार पर उसे केवल आश्वासन के सिवा दिया ही क्या है।
स्वतंत्र ने कुछ दोस्तों और सहकर्मियों से पैसे उधार देने की बात की लेकिन त्यौहार के कारण सबने असमर्थता जताई । कुछ दिन और निकल गए और करवा चौथ में केवल एक दिन बचा। इस बीच सुनीता ने स्वतंत्र से कुछ कहा भी नहीं। वह भी समझ चुकी थी साड़ी के लिए पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया होगा।
करवा चौथ से एक दिन पहले स्वतंत्र ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था तभी सुनीता आ कर बोली, " कल करवा चौथ है। साड़ी तो आ गयी, कुछ पैसे ही दे दो । श्रृंगार का सामान ही ले आऊँगी।“
कितने पैसों में हो जायेगा स्वतंत्र ने पूछा पंद्रह सौ या दो हजार दे दो । मेहंदी भी लगवानी है । पांच सौ तो एक हाथ पर लगवाने के जाते हैं
"ठीक है शाम को ले लेना करवा चौथ तो कल है, दिन में सामान ले आना।" उसने झिझकते हुए कहा तो सुनीता बिफर पड़ी," हाँ हाँ शाम को क्यों कल ही दे देना, वैसे भी मुझे कल कोई और काम तो हैं ही नहीं ना। अपने पैसे अपने पास रखो मुझे नहीं चाहिए।“, कहती हुयी चली गयी।
स्वतंत्र को उम्मीद थी शायद शाम तक किसी तरह इंतजाम हो जाए। भगवान कुछ तो राह निकलेगा ही। यही सोचते हुए वह ऑफिस आ गया। दोस्तों से एक बार फिर पूछा लेकिन कोई लाभ ना हुआ। इसी तरह शाम के सात भी बज गए। उसके सहकर्मी घर जाने लगे और वह सोच में डूबा हुआ बैठा था कि एक सहकर्मी ने कहा, “स्वतंत्र क्या बात है, कहाँ खोये हुए हो ? घर नहीं जाना क्या ?"
वह एकदम चौंकते हुए बोला, "हाँ बस जा ही रहा हूँ ।" बैग और टिफ़िन उठाकर बाहर निकल आया। मन में हलचल मची हुयी थी । सुनीता को क्या जवाब दूंगा ? कैसे सामना करूँगा उसका ?
सोचते सोचते वह पैदल ही चलता जा रहा था। चलते चलते उसे एक घंटे के लगभग हो चुका था। वह कहाँ जा रहा था उसे भी नहीं मालूम था, बस चलता ही जा रहा था। थकन होने पर सड़क किनारे पड़ी एक बेंच पर बैठ गया और खुद के भाग्य को कोसने लगा। क्या लाभ ऐसे जीवन का जो अपने पत्नी कि एक छोटी सी इच्छा भी पूरी ना कर पाऊं। इससे अच्छा तो मर जाऊँ, कम से कम उसके तानों से तो बचूंगा। नहीं, नहीं, कल करवाचौथ है वो मेरी लम्बी आयु के लिए उपवास रखेगी। जब उसके सामने मेरा शव जायेगा, तो क्या बीतेगी उस पर। लोग कायर कहेंगे मुझे।
स्वतंत्र के मन में ये अंतर्द्वंद चल ही रहा था कि उसका मोबाइल बजा। देखा तो का फ़ोन था। उसने अनमने मन से फ़ोन उठा लिया, "हैलो, कहाँ हैं आप ? ग्यारह बज गए घर क्यों नहीं आये अभी तक ? आप ठीक तो हैं ना ?”
दूसरी तरफ से सुनीता घबराते हुए बोले जा रही थी, “आप सुन रहें हैं ना, जवाब क्यों है दे रहे हैं ?”
"वो , पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया।"स्वतंत्र बड़ी मुश्किल से रुआंसे स्वर में बोला।
"तो घर नहीं आएंगे आप ?" सुनीता रोते हुए बोली, "आप जल्दी घर आ जाओ बस मैं कुछ नहीं जानती।" उसका रो रो कर बुरा हाल था।
"तुम रोओ मत मैं थोड़ी देर में घर पहुँचता हूँ।"
स्वतंत्र जैसे ही घर पहुंचा, देखा चौखट पर खड़ी बड़ी बेसब्री से उसकी राह निहार रही थी। उसकी आँखों में अभी भी आंसू थे, और कुछ अनिष्ट होने की आशंका भी।
स्वतंत्र को देखते ही वो उससे लिपट कर जोर जोर से रोने लगी।
"माफ़ करना परी, मैं अपना वादा नहीं निभा पाया।"स्वतंत्र ने हौले से कहा।
“ऐसे क्यों करते हो आप, पैसे नहीं हैं तो घर नहीं आओगे।“ वो रोते हुए ही बोली,
“आपको मेरी कसम है जो फिर कभी ऐसे मुझे रुलाया तो।“
“अच्छा बाबा ठीक है, अब रोना तो बंद करो और मुझे अंदर तो आने दो, पडोसी देंखेंगे तो क्या कहेंगे।“
“ठीक है आप हाथ-मुँह धो कर कपडे बदल लो मैं खाना लगाती हूँ।“
खाना खाने के बाद स्वतंत्र ने उसे पांच सौ रुपये दिए और बोला, " ये रख लो, इतने ही हैं मेरे पास। इनमे जो सामान आये ले आना।"
सुनीता रूपये लेते हुए बोली, “आप से ही तो मेरा साज श्रृंगार हैं आप साथ हैं तो फिर किसी चीज कि जरुरत नहीं। करवाचौथ तो हर साल आएगी साड़ी का क्या है अगली बार दिला देना।“
तीन सौ उसे वापिस करके दो सौ रखते हुए बोली, “मेरी चूड़ी, बिंदी वगैरह इतने में आ जाएगी, बाकी आप रख लो। आप को रोजाना ऑफिस जाना होता है ये आपको चाहिए ।“
स्वतंत्र पैसे लेते हुए सोच रहा था ये कितने विशाल हृदय की है कितनी आसानी से अपनी इच्छा को दबा लिया सिर्फ ये ऐसी है या सभी स्त्रियां ऐसी होती हैं हाँ सभी स्त्रियां ऐसी ही होती हैं विशाल हृदय की, सहनशील पल पल अपनी इच्छाओं को मन में दबाती। इनकी दुनिया सिर्फ अपने पति के आस पास ही सिमटी हुयी होती है। अचानक उसकी सोचों को झटका लगा जब सुनीता उसे हिलाते हुए बोली, कहाँ खो गए, इस बार छोड़ दिया, अगली बार बिलकुल नहीं छोडूंगी। साड़ी ले कर ही रहूंगी अभी से कह देती हूँ कोई बहाना नहीं सुनूंगी। इतना कहकर सुनीता अपना कम निबटाने रसोई में चली गयी और स्वतंत्र उसे जाते हुए देखता रह गया।
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