भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है की मनुष्य को सांसारिक मोह- माया से दूर रहना चाहिए, लेकिन ऐसा क्यों? क्योकिं जब मनुष्य इस मोह- माया में फसता है तो उसका मन हमेशा विचलित रहता है। हम जिसे भी अपना मानने लगते हैं, उससे न चाहते भी लगाव या मोह हो जाता है। धीरे- धीरे वह इस हद तक जा पहुंचता है, जहां ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि हम न उसे छोडऩा चाहते हैं और न उसमें से छूटना चाहते हैं।
पिता परमेश्वर ने मनुष्य आत्मा को निर्वाकारी, सरल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए उत्पन्न किया, किंतु मनुष्यों ने अपने चारों ओर मोह का ऐसा माया जाल निर्मित्त कर दिया, जिससे स्वयं सृष्टि के निर्माता 'परमपिता परमात्मा' को इस धरा पर अवतरित होकर उसकी आंखों पर बंधी मोह की काली पट्टी को खोलने का कार्य करना पड़ा।
ईश्वर ने सभी आत्माओं के साथ नि:स्वार्थ प्रेम करना सिखाया, किंतु अपनी अज्ञानतावश व देह के मिथ्या अभिमान के कारण हमने आत्मा को भूलकर देह व देह से मिलने वाले सुख की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया और तभी से हमारी दुर्दशा शुरू हुई।
प्रेम और मोह में जमीन-आसमान जितना अंतर हैं। व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के प्रति इतनी आसक्ति होना कि उन्हें पाने अथवा अपने कब्जे में रखने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो जाया जाए, स्पष्ट रूप से मोह है। जब हम व्यक्तिगत तौर पर किसी से आकर्षित होकर उससे इस कदर जुड़ जाते हैं कि उससे बिछडऩे की बात सोचने तक से हमें कष्ट होने लगता है तो यह भी मोह की स्थिति है क्योंकि हमारा मोह सदैव यह चाहता है कि हमारी प्रिय व्यक्ति या वस्तु का साथ हमसे छूटने न पाये, चाहे इसके लिए अपना अथवा उस प्रिय व्यक्ति का कितना ही अहित क्यों न हो।
इसलिए हमें सभी प्रकार की इच्छा-कामनाओं का त्याग कर एक परमात्मा की तरह सभी आत्माओ से नि:स्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा, अन्यथा हम मोह रूपी दलदल से कभी भी बहार निकल नहीं पाएंगे।
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